वर्णाश्रमधर्म - सनातनधर्म
के आधारस्तम्भ
- डॉ गार्गी पंडित
श्रीमद्भगवद्गीता
में भगवान श्रीकृष्ण की यह घोषणा है कि-
चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:
जिसका अनुवाद तो होता है कि गुण और कर्म के विभाग द्वारा
मैंने चारो वर्ण की सृष्टि की है ।
आप यह मत
समझना कि संस्कृत भाषा आ जाने पर किसी को गीताका रहस्य समझ में आ जाएगा ।
गीता तो नीरा वेदान्त है, प्रस्थान
त्रयीमें से जो स्मार्त प्रस्थान है वह भगवद्गीता है । यह तो वह गूढ रहस्य
और सिद्धान्त है जो भगवान ने गाया है । तभी तो वेदान्त और योगशास्त्र होने पर भी
यह मनोहर है । यही तो वैदिक साहित्य की विशिष्टता है कि यहाँ इतिहास भी काव्य में
लिखे जाते है (रामायण और महाभारत)। वेदांतके सिद्धान्त भी गाये जाते है (भगवद्गीता
और भगवान शंकराचार्य के स्तोत्र) । अधिक क्या कहे अरे अमरकोश जो संस्कृत भाषा का
प्राचीन कोश है वह भी पद्य में है । ऐसी सनातन संस्कृति के हम वाहक है और यही
हमारी मूल्यवान धरोहर है ।
हम सनातन हिन्दुधर्मी है, इस बात का हमे अत्याधिक गर्व है । होना भी चाहिए, सनातन धर्म है ही ऐसा । यह न केवल
भारतवर्ष का अपितु समस्त ब्रह्माण्डका एकमात्र धर्म है । और इसी कारण हमारे
शास्त्रों में अधिक्तर धर्म शब्द का उल्लेख है, वहाँ हिन्दु और सनातन धर्म यह बार बार नही कहते । देखिए, जब तक market में डालडा या वनस्पति घी मिलता ही न
था तब तक शुद्ध घी लिखने की आवश्यक्ता ही नही रहती थी । पर अब लिखना पडता है, क्योंकि अशुद्ध मिलने लगा है, मिलावट होने लगी है । खाद्य वस्तुओं
में ही नही, अब तो
जातियों में भी मिलावट होने लगी है । अब गीता के उपरोक्त श्लोक को लेकर बुद्धिजीवी तर्क करते है कि जाति
जो है वह गुण ओर कर्म से निर्धारित होती है । जन्म से नहीं । एक क्षण के लिए दुर्जन
परितोष न्यायानुसारेण यदि इस बात को मान भी ले तो भी भगवान का वचन है कि मया
सृष्टं मेरे द्वारा । पर यहाँ तो सुधारक कहलानेवाले खुद ही तय कर लेते है कि
हम ब्राह्मण के कर्म करते हैं तो ब्राह्मण हो गए, हमारा आचरण अच्छा है तो हम भी ब्राह्मण, हम शुद्ध रहते है तो हम ब्राह्मण हो
गए क्योंकि हमारे गुण कर्म ब्राह्मण जैसे हैं । अब ना तो यह वर्ण धर्म जानते है ना
ही आपद्धर्म, न तो
सामान्य धर्म ।धर्म प्रधानत: तीन प्रकार के है ।
१) वर्ण और आश्रम के धर्म
२) सामान्य धर्म
३) आपद्धर्म
२) सामान्य धर्म
३) आपद्धर्म
वर्ण और
आश्रम के धर्म ,उन वर्ण
और आश्रम के लिए है जिसमें मनुष्य
जन्म से है और आयुके उस भाग में हो ।सामान्य धर्म सभी वर्ण और आश्रम के लिए है । और तिसरा जो आपद्धर्म है वह केवल
विशेष परिस्थितिओं में ही पालन करने योग्य है । वह सर्व सामान्य नही । हमारे मनीषि दीर्घदृष्टा थे, हर परिस्थितिओं का विचार कर
धर्मशास्त्र का निर्माण किया है । इस पर भी
कई कुतर्की कहते है यह सारे लोगों ने ब्राह्मण के हित को ही ध्यान में रखा क्योंकि
वे भी ब्राह्मण थे । अब देखिए जो भी मन में आया बोल दिया, झूठ बोल देने से जीभ कट नही जाती और
तालु गिर नही पडता और इसी लिए ये निर्लज्ज हो बकवाद करते हैं । धर्मशास्त्र के
रचयिता सभी ब्राह्मण नही हैं । अरे भगवान मनु तो क्षत्रिय है । दूसरी बात यह जो
उद्धरण गीता से दिया उसकेा कहनेवाले भगवान श्रीकृष्ण तो क्षत्रिय है । और एक बात, धर्मशास्त्र से पहले वेद में भी वर्ण
व्यवस्था आई है । हम वेद, धर्मशास्त्र
,
इतिहास, पुराण सभी का प्रमाण देंगे । पर वेद का इसलिए कह रहे है कि कुछ
सम्प्रदाय ऐसे है जो वेद को तो मानते है पर पुराणो को नहीं मानते । अब वेद तो
ब्राह्मणों की क्या किसी भी मनुष्यकी रचना नही है, वेद तो अपौरुषेय ठहरें ।
अब आप ये
कुतर्क करोगे कि वेद में भी पक्षपात है ? या ये कहेंगे कि वेद में नहीं आया? हम आपको एक नही कई प्रमाण दे सकते है और देंगे भी । अब यदि
ब्राह्मणोंने ही जाति के जन्म से भेद बनाये है यह मान ले तो भी पक्षपात नही हुआ है
क्योंकि यदि उनको पक्षपात करना होता तो धनका कारोबार वैश्य को न सौंपते और सत्ता
के सूत्र क्षत्रिय के हाथ में न देकर, स्वयं ही संभालते । पर ऐसा नहीं हुआ है ।इसलिए ब्राह्मणों ने
पक्षपात किया है, यह तो
प्रश्न ही निराधार है ।
इसलिए यह
कहना कि जन्म से जाति नही और गुण कर्म से है, गीता के वचन की ऐसी व्याख्या करना नितान्त गलत है । यदि
शास्त्रोकी व्याख्या इतनी सरल होती तो आचार्य शंकर को गीता पर कलम चलानेकी, भाष्य लिखने की आवश्यक्ता ही नहीं
रहती । तब तो सभी बुद्धिमान स्वयं ही व्याख्या कर लेते । हर स्थान पर अभिधा मान्य
नही,
लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग भी
होता है । भला इन बुद्धिजीवीओं को क्या पता कि लक्षणा किसे कहते है? व्यंजना किस खेत की मूली है? पाश्चात्य विद्वानोने संस्कृत सिखकर
अर्थ निकाल लिए, और हमारे
कुछ भारतीय विद्वानोंने भी उन्हींका अनुसरण कर प्रलाप आरंभ कर दिया । उनके कहने पर
हमे आश्चर्य नही, पर अपने
ही लोगों के मान लेने पर अवश्य है । उनका तो कोई अतापता नही, लावारिस थे पर हम तो वारिस है न इस
भव्यातिभव्य संस्कृति के, हमारे
विद्वानों ने भी गलती की??!!!
यदि गीता
के वचन का तात्पर्य यह कर ले कि जन्म से नहीं,गुण कर्म से जाति निर्णय हो तब तो कठिनाई हो जाएगी । मान ले
कि एक मनुष्यके गुण अच्छे है और कर्म जो है वह क्षत्रिय के है (योद्धा हो सैन्यमें
हो) तो उसकाे कौन सी जाति का मानेंगे ? ब्राह्मण या क्षत्रिय?अच्छा दूसरी बात गुण स्थायी न भी रहे । जो आदमी पहले अच्छा हो पीछे
बुरा हो सकता है, और बुरा
आदमी भला भी बन सकता है । तो क्या बार बार उसकी जाति परिवर्तित करेंगे? मनुष्यकी वृत्ति(आजीविका चलानेका
व्यवसाय) में भी समय आने पर परिवर्तन हो सकता है । योद्धा पीछे से वैश्य वृत्ति
(खेतीबाडी) से निर्वाह करे तो ? पुन:
जाति परिवर्तन??!इस
प्रकार तो समस्या बढेगी, घटेगी
नहीं ।
मनुस्मृति
में बालक के जन्म के १२-१६ दिवस में नामकरण संस्कार करने का विधान है । जिसमें
ब्राह्मण के नाम के आगे शर्मा, क्षत्रिय
के पीछे वर्मा, वैश्य के
पीछे गुप्ता, इत्यादि
लगाना है । तो १२ दिवसोमें ही बालक के गुणकर्म का पता लगा लोगे क्या? सुतराम धर्मशास्त्रको तो जन्म से जाति
मान्य है ।देखिए, कोई क्या
मानता है, इससे
हमको लेना देना नहीं, शास्त्रवाक्य
ही प्रमाण है । धर्मशास्त्र जन्म से जाति का निर्णय करते है । उपनयन के लिए भी वर्ण के अनुसार वर्ष
बताए गए है । गीता के वचन का शब्द व्यवहार मात्र कर अर्थ नहीं किया जा सकता । अब
प्रश्न यह कि अर्थ कैसे करे ? हमारे आचार्यश्री
कहते है कि यदि ज्ञान प्राप्त करना हो तो सद्विद्वान उपसर्प्यतां प्रतिदिनं
तत्पादुकां सेव्यताम्
सद्गुरु की शरण में जाओ और उनके चरणों की सेवा करो । पुस्तक पढने मात्र से भला कोई ज्ञानी हो जाएगा क्या? भगवान भी अवतार लेकर आते है तो गुरु के चरणों में जाते है । इस श्लोक में गुण का अर्थ है सत्व, रज और तम । कर्म का अर्थ है कर्तव्यकर्म । समस्त वाक्य का अर्थ हो जाता है- जन्म के समय जिसमें जिस परिमाण से सत्व, रज और तमोगुण रहता है, तदनुसार कर्तव्य-कर्म का विभाग करके ईश्वर ने चारो वर्णोंकी सृष्टि की है ।
सद्गुरु की शरण में जाओ और उनके चरणों की सेवा करो । पुस्तक पढने मात्र से भला कोई ज्ञानी हो जाएगा क्या? भगवान भी अवतार लेकर आते है तो गुरु के चरणों में जाते है । इस श्लोक में गुण का अर्थ है सत्व, रज और तम । कर्म का अर्थ है कर्तव्यकर्म । समस्त वाक्य का अर्थ हो जाता है- जन्म के समय जिसमें जिस परिमाण से सत्व, रज और तमोगुण रहता है, तदनुसार कर्तव्य-कर्म का विभाग करके ईश्वर ने चारो वर्णोंकी सृष्टि की है ।
गीता के १८ वे अध्याय के ४१वे श्लोक को साथ में लेकर इसका
तात्पर्य समजा जा सकता है । केवल इस श्लोक का स्वतन्त्र अर्थ करने पर तो भ्रान्ति
होगी । पर, चोर जब चोरी करता है तब जो हाथ में
आया उठा लिया । एक कुण्डल मिला तो वह, एक पायल मिला तो वह भी । जोडी ढूँढने नही बैठता । वैसे जिनको केवल
आक्षेप करना होता है वह पूर्वापर सम्बन्ध को छोड देते है । पर ऐसे अर्थ नहीं
निकलते, इससे तो
आप अनर्थ कर देते हो । सिद्धान्त को ही तोड मरोड देते हो ।
तात्पर्य यही कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शुद्रके जन्म के समय जो गुण रहते है, तदनुसार उनके कर्तव्यों का विभाग किया गया है । गुण कर्म के आधार
का सरल अर्थ करना हो तो यह करना चाहिए कि पूर्व जन्म के कर्म और गुणों के फल
स्वरूप दूसरा जन्म उस जाति और परिवार में मिलता है । कुछ लोग समझते है कि हिन्दुओंमें जातिभेद था, इसी कारण हिन्दु जो है वह मुसलमानो और
अंग्रेजो से पराजित हुआ । परंतु ऐसा सोचना भूल है । मुसलमानो ने केवल भारतवर्ष को
ही नहीं जीता था । उन्होंने मिस्र, सिरिया, इरान, स्पेन को भी जीता , वह भी केवल ८ वर्षो में । वहाँ कहाँ
वर्ण व्यवस्था थी? जबकि
भारत को जीतने के लिए ३०० वर्ष तक लगातार प्रयत्न करना पडा और फिर भी कामियाब नहीं
हुए । इतिहास देख लिजिए । सर्वप्रथम जो आक्रमण हुआ वह ईसा की ७वीं सदी में हुआ ।
६६४ई. में अारबों ने आक्रमण किया और मुसलमानो का अधिकार उससे ५२९ वर्ष पश्चात
सहाबुद्दीन गोरी के समय में हुआ । क्या कारण था कि भारत को हराने में मुसलमानो को
वर्षो लगे ? उत्तर है
-हमारी सुदृढ वर्ण व्यवस्था । वैदिक युग से ११९४ ई. तक हिन्दुओं ने अपनी जाति
व्यवस्था की रक्षा की । किसी
किसी पाश्चात्य विद्वानोने जातिभेद की निन्दा की, तथापि सर हेनरी काटन, श्रीसिडनी लो, श्रीमती एनीबेसेंट तथा सर जॉन उडरफ आदि बहुतेरे विद्वानोने जातिभेद
की प्रचुर प्रशंसा भी की है । किसी व्यक्ति की वृत्ति विशेष के लिए उपयुक्तता
प्रमुख रूप से दो बातो पर निर्भर करती है ।
१)
जन्मगत संस्कार
२) पारिपार्श्विक अवस्था ।
२) पारिपार्श्विक अवस्था ।
जन्मगत संस्कार यानी जिस जाति में जन्म हुआ हो, उसके व्यवहार, रीत भात, चाल चलन
को रक्त में ही प्राप्त कर लेना । जिसे विज्ञानकी भाषा में हम आनुवंशिक्ता कहते है
।स्वाभाविक रूप से प्राप्त कर लेना । दूसरा है अपने आसपास का वातावरण या
परिस्थितियाँ । बालक जिस वातावरण में बढता है उससे परिचित हो जाता है, वह उसके अनुकुल बन जाता है ।उन्हे
तुरंत ग्रहण कर लेते है । जैसे, ब्राह्मण का पुत्र पिता के अनुरूप धीर, शान्त स्वभाव तथा धर्म परायण हो, यही संभव है । बाल्यकाल से ही पिता को
शास्त्र चर्चा, क्रिया
कर्म में निरत देखता है । क्षत्रिय का पुत्र स्वभावत: शक्तिशाली होता है ।
बाल्यकाल से वह युद्ध की बाते, शौर्यकी
गाथाएँ सुनता है । उसके मन में उसी तरह वीरतापूर्ण कर्म करने का आग्रह उत्पन्न
होता जाता है । जुलाहे का लडका बचपन से ही चरखा, करघा आदि से परिचित होता है, अपने पिता को उस पर काम करता हुआ देखता है । जन्मगत वृत्ति
की व्यवस्था होने पर अधिकांश लोग समाज उपयोग वस्तुकी पैदावार कुशलता से कर पाएँगे
। और एक ही काम पीढी दर पीढी करने पर उसमें महारथ हाँसिल हो जाएगी । इसी जन्मगत
वृत्ति के फलस्वरूप भारतमें विविध प्रकार की कलाओं और शिल्पकी उन्नति हुई । भारत
के समान बारीक सूती वस्त्र और कहीं नहीं बनता था । एलोरा, कोणार्क के मंदिर एवं शिल्प, एक ही परिवार की कई पीढीयों से निर्मित हुआ, पीढी दर पीढी काम चला , तब जाकर तैयार हो पाया । आैर आज वे
अद्वितीय शिल्पकला और चित्रकला के नमूने भारतवर्ष की गरिमा का गान कर समग्र
विश्वको आकृष्ट कर रहे है । इसका कारण वंश परंपरा से चला आ रहा व्यवसाय है ।
धार्मिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, शास्त्रीय या किसी भी रूप से देख ले, वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज का भूषण है, विशिष्टता है । सनातन धर्म की
आधारशिला है । ईश्वर प्रदत्त इस वर्णव्यवस्था का नाश कोई मनुष्य तो कदापि नहीं कर
सकता ।
जाति विभाजन अनैक्य की सृष्टि नहीं है । सबको एक ही डंडे से
हाँकना बुद्धिमानी नहीं । एक बोझा पुआलको एक रस्सी से बाँधने पर, उसमें जो ऐक्य होता है, उसकी अपेक्षा कुछ पुआलकी अलग अलग
आँटियाँ तैयार कर फिर सारी आँटियोंको एक रस्सी से बाँधने पर ऐक्य और मजबूती दोनो ही बढा जाती है ।
वर्ण के धर्मो का पालन कर राष्ट्रनिर्माण के लिए एकजूथ हो आगे बढे तो हमे कोई जीत
नहीं सकता ।